Friday, 30 January 2015

दिव्य उलझन - I

दिव्य उलझन  - I


चंचल चिड़ि जब पंख फैलाये,
अलसाये रवि को करे नमन,
मदमस्त हो निर्मल सी चहके,
हर आँगन में छेड़े नूतन तरंग
कुंजन कर कहे जाग सलोनी,
परिचय कराऊँ अभिलाषी प्रभात,
तरु शाख से शिविर क्षितिज तक,
गूंजन करे आलौकिक अविरल।।

सुन सृजन की मृदु गुनगान, 
अध पलक मैं देखती किरण,
अलसाती, अंगड़ाती, आँखों को मलती,
 इठलाती मैं स्वप्निल नयन।    
जागती खोई तब मिथ्य जगत में, 
छवि ख्वाब के मुग्ध आलिंगन में, 
परखती यथार्थ, समझती समझाती,
करती परित्याग की एक कोशिश भ्रमक  


First part of a series of poem depicting the perplex when a girl first falls in love and then realizes and finally accepts - all through her day to day work. This first part is when she wakes up in the morning.   Express how & what you feel.

आदित्य सिन्हा 
30 . 01 . 2015 
अलीगढ़ 

Wednesday, 28 January 2015

अकेले होते तन्हा नहीं हम




अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग सहज कर लेते।  

हर कोने में कुछ पन्ने बिखरे,
दीवारों से तसवीरें लुढ़कते, 
गुजले पन्नों के लुप्त लकीरें ,
लटकती तस्वीरों पे धुल की चादरें,
आँखों से बहते दो बूंद सहस,
धूमिल तस्वीरें नव चेतन करते,  
उन पन्नों में उलझे अफसाने,
सुलझाते व्यथाएँ,  बनाते तराने,

अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग सहज कर लेते। 

तन्हा जीवन,  कोरा  दिल ,
फिर दिल पे दस्तक हर पल , 
कभी उड़ती ज़ुल्फें, कभी चन्दन बदन,
काले नैन,  कुछ लरजता यौवन, 
दिल की धड़कन, उठते बैठते,
बंद आँखें और उन्मुक्त मन, 
तारें मिलते फिर करता चयन, 
मिलते सुर बनते सरगम।

अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग सहज कर लेते। 

होता कुंठित जहन, या पीड़ा दफ़न, 
अनजाने सवाल या विचलित मन, 
ख़ुशी के होते झूमते  मौसम,
या गौरव से हर्षित पलछीन, 
अधीर रूह मिलती खुद से,
ढूंढ एकान्त, दूर जगत में ,
आलिंगन करता मन फिर तन से, 
खोज रहस्य तरुणित हो जाता। 
  
अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग कर लेते। 

आदित्य सिन्हा 
28. 01 2015 
अलीगढ़ 

(यह कविता इंडीब्लॉग के उन्चासवें इंडिस्पायर विषय #solitude से प्रेरित है ) 


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मैं और मेरी तन्हाई

मैं और मेरी तन्हाई 



मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ.

रात होती गर लम्बी शीत की,
गर्म रखते ख्वाब मीत से ,
उबलते उजले गृष्म में भी , 
ठंडक देते भुनते मन को।  

मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ। 

दर्द हो गर गहरे चोट से,
वक्त के ये लेप लगाते,
आनंदित प्रफुल्लित मन कर,
बार बार जीवंत कर जाते। 

मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ।

टूट के गर बिखरे तिल-तिल,
दिल को दिल की बात बताते, 
नव मन तरूण तन कर,
उठ कर नई राह चलाते। 

मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ।
  

आदित्य सिन्हा 
28 . 01 . 2015 
अलीगढ़ 

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Friday, 16 January 2015

जीना सीख लिया

जीना सीख लिया



जरा सी आहट जो होती फ़िज़ां में,

मायूस चेहरे पे हम नकाब चढ़ा लेते,  
होठों पे थिरका एक खोखली मुस्कान, 
उठा सर दो कदम हम और चल लेते, 
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

वो जो चेहरा था फूलों सा कभी हमारा,
अब छुपा कर पलकों में बसा हम रखते,
आँसू भी गर निकले कभी महफ़िल में,  
खुशबू -ए-अर्क में भी वो ज़ाहिर नहीं होते, 
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

नर्म होठों से जिनके चलती थी सांसें,  

सदा वो अब रखते जलते लबों को,
लहू भी जो उभरे कभी दरारों पे,
जुबां को फेर हम लाली बना लेते ,
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

कोरे दिल पे कभी लिखी कहानी जिनकी, 
हर रात देती हैं साथ अब वो ख्वाब बन के,
नींदों में भी कभी नाम न आये उनकी, 
हर सुबह खुदा से हम यही अर्ज़ हैं करते, 
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

एक नाम जो जुड़ा उनसे अनजाने में,

मिली आयाम,  खुद को भूल गया मैं , 
उनके जाने के बाद भी न कह सकूँ बेवफा मैं ,
इसलिए हूँ ज़िंदा और जीना सीख लिया मैं ,
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।


आदित्य सिन्हा 
16 . 01. 2015 
अलीगढ़