दिव्य उलझन - I
चंचल चिड़ि जब पंख फैलाये,
अलसाये रवि को करे नमन,
मदमस्त हो निर्मल सी चहके,
हर आँगन में छेड़े नूतन तरंग।
कुंजन कर कहे जाग सलोनी,
परिचय कराऊँ अभिलाषी प्रभात,
तरु शाख से शिविर क्षितिज तक,
गूंजन करे आलौकिक अविरल।।
सुन सृजन की मृदु गुनगान,
अध पलक मैं देखती किरण,
अलसाती, अंगड़ाती, आँखों को मलती,
इठलाती मैं स्वप्निल नयन।
जागती खोई तब मिथ्य जगत में,
छवि ख्वाब के मुग्ध आलिंगन में,
परखती यथार्थ, समझती समझाती,
करती परित्याग की एक कोशिश भ्रमक ।
First part of a series of poem depicting the perplex when a girl first falls in love and then realizes and finally accepts - all through her day to day work. This first part is when she wakes up in the morning. Express how & what you feel.
आदित्य सिन्हा
30 . 01 . 2015
अलीगढ़