ऐ हमसफ़र
आओ चलें हम फिर वहीं, जिस मोड़ बिछड़े थे कभी,
ढ़ीली पड़ी थी हाथों की पकड़, छूटी थी उंगल मेरी,
कोरी हुई थी हथेली वहीँ , ओझल भी लकीरें सभी,
कसक उठा मन में मेरी, रो पड़ा था ज़मीं आसमां भी।
नम आँखों के अश्रु झलक, पलकों में समेट कर ,
तबस्सुम पे उभरे गमों को, दुपट्टे तले टेक कर ,
खामोश जुबां लड़खड़ाये थे , दास्ताँ बिन बयाँ किए ,
चल दिए थे अंजान राह , स्याह मूरत तुम बने।
और हम ठिठके सहमे, वहीँ खड़े देखते रहे,
दूर जाती स्याह में, रूह खोजते रहे,
चलती फिर भी सांसें रहीं, धड़कनें टटोलते रहे,
वक़्त के आंधी तले, लम्हें संजोगते रहे।
जीवन की संध्या तले, जिस्म शीत हो चली ,
सपने धूमिल हो गए, अरमान खाक हो चली ,
नज़रों में मगर आज भी, सूरत वही रौशन रही,
प्यार का कर्ज रहा , अंगार वही यौवन रही।
आओ चलें हम फिर वहीँ, उस कर्ज को उतार दें,
सांसों में नहीं तो सही, कफ़न तले साथ दें,
वादे अगले जन्म की, रूह की जुबान लें,
हर अगले सफ़र में तुम्हें, हमसफ़र का नाम दें।
आदित्य सिन्हा
24 . 11 . 2014
अलीगढ़
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