Friday 27 March 2015

अंजान रिश्ता




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याद है मुझे गर्मी का वो दोपहर,
ओसारे में बैठ घंटो पढ़ते रहे थे कुछ नाम,
सामने इमली से झरते पत्ते, लू के चलते लहर,
परीक्षा ख़त्म और मानों उन्मुक्त हो गए थे हम,
घर के बुजुर्ग बंद कमरे में अलसाये सोये,
और हम "टीनएजर" पत्रिका के अंतिम पन्ने में खोये,
हर नाम और पता को तन्मयता से पढ़ते,
मंद मंद कुछ पे मुस्कराये थे,
कुछ ने की थी दिल में गुदगुदी,
और फिर चुन दो तीन सुन्दर से नाम,
लिखने बैठे थे हम पहला वो खत।



                                                 क्या पता था वो अनायास प्रयास,
                                                 ज़िन्दगी का एक अटूट हिस्सा बन जाएगा,
                                                 क्या पता था वो अन्जान सा नाम,
                                                 हमारे नाम से हमेशा जुड़ जायेगा।

बस कुछ ही खतों का हुआ आना जाना,
और हज़ारों मीलों की दूरी हो गयी खत्म,
अब उसके आने की आहट सहस लगी मिलने,
और स्कूल से लौटते हमें होने लगा था पता,
हमारी चाल खुद ब खुद तेज हो जाती थी,
दरवाजे पे चारों तरफ नज़र हम दौड़ाते,
फिर बस्ता फेक दादा जी के  पास दौड़ते,
उनके हाथों में सहजा तुम्हारा खत होता,
और उनके होठों पे होती वो शांत मुस्कान।

                                                 क्या पता था मिटी हुई वो मीलों की दूरी,
                                                 हमेशा  का मीठा साथ बन जायेगा,
                                                 क्या पता था वो अन्जान सा नाम,
                                                 हमारे नाम से हमेशा जुड़ जायेगा।

लेकर खत तुम्हारा दौड़ अपने कमरे की ओर,
घंटों मै उसे पढता, उन लिखावटों में तुम्हे देखता,
तुम्हारी कहानियों में अब खुद को मैं पाता,
और तुम्हें अपनी कहानी में ढाल जाता,
बचपन के दिल खतों में ऐसे कब घुल गए,
कैसे मन के बात शब्दों में पिरो गए,
धड़कन खत में ही कब चलने लगे,
और स्याही में ही कब लहू दौड़ने लगे,
ये मुझे याद नहीं,  ख़ुशी है ऐसा ही हुआ,
मैं किसी का, और कोई मेरा जो हुआ।

                                                 तब कहाँ पता था बचपन बड़ा हो जायेगा,
                                                 हमेशा  के लिए वो धड़कन जवां हो जायेगा,
                                                 क्या पता था वो अन्जान सा नाम,
                                                 हमारे नाम से हमेशा जुड़ जायेगा।

आज वही तारिक़ है, 
जब एक बीज बोया था, 
कहाँ पता था पौधा इतना घना हो जायेगा, 
ज़िन्दगी का एक नया पैगाम सिखाएगा, 
भागते दौड़ते तीस साल गुजर जायेंगे ,
तुम अपने गली जाओगे, हम अपने रस्ते नापेंगे,
हमारे बच्चे भी बड़े हो जायेंगे, 
खतों का ज़माना भी खत्म हो जायेगा,
मगर  हम साथ रहेंगे हमेशा, उन्ही खतों में धड़कते। 

                                                 तब कहाँ पता था रिश्ते बनते हैं, ख़त्म नहीं होते,
                                                 मीलों दूर हों या हो पास ,जुड़े खत से या मिले हाथ,
                                                 क्या पता था इस तरह बन जायेगा, 
                                                 वो अंजान नाम से, एक रिश्ता अंजान। 

इस फ्रेंडशिप डे (२७ मार्च ) पर खास कर उसके लिए जिसने ये मंज़र दिखाये। 
Thanks for being my friend all the way. 


आदित्य सिन्हा,
27. 03. 2015 
अलीगढ 

Though the poem has been written on a different occasion and with a nostalgic theme, this weeks WOW prompt of A never ending Summer makes me attach to WOW as well. No this not about summer, but just one summer afternoon when the first step was taken and then it became an integral part of my life, never to be forgotten, the never ending summer of my life.

So summer's can be instrumental in this way too.

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Also adjudged WOW of the week by BlogAdda.





Sunday 15 February 2015

Pyar Ka Utsav ( प्यार का उत्सव )

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प्यार का उत्सव 




सुना है वैलेंटाइन डे आने वाला है,
प्यार का इज़हार का नया कोई उत्सव है,
एक नहीं, दो नहीं, पूरे आठ दिन का है ये,
लगता होली, दिवाली, सब पर्व से कुछ बृहद है।  

जान मेरे मन में भी एक आस जग आई,

सोये हुऐ अरमानों में प्यास जग आई,
शायद नए प्यार का ये मौसम, पुराना प्यार लौटा लाये,
ये सोच निकल पड़ा मैं करने कोशिश एक और नई। 

शुरू हुआ कहानी जब दिन गुलाब से,

बिखरे बाजार में सुर्ख़ कुसुम प्यार के,
सोंचूं मैं भी ले कर एक कली लाल, 
बिन बाग़ कैसे मोहे ये मन मीत के। 

फिर आया दिन प्रस्ताव का,

खोज कर मै एक  परफेक्ट डेस्टिनेशन,
विचारूँ जीवन बीताया जिसे मन में बसा कर,
अब करूँ कैसे इज़हार उनके पहलु में बैठ कर।  

आये दिन फिर चोकलेट और टेडी के,

कैसे करूँ मैं ये भेंट नज़राना,
गुलाबी होंठ को एक करे स्याह, 
तो दूसरा खेले कमसिन बदन से। 

और मैं क्या करूँ कोई अब वादा, 

ख्यालों मैं जीवन बीता दिया जब आधा,
नहीं तमन्ना अब कोई आलिंगन का भी,
रोम रोम में बसा जब प्यार मेरा।

दिन चुम्बन का भी बीत गया इन्ही ख्यालों में,
लबों की लाली कैसे चुराऊं मैं,
नए ज़माने के इस वैलेंटाइन में,
कैसे पाऊं अपना वैलेंटाइन मैं। 



आदित्य सिन्हा,
15. 02.  2015. 
अलीगढ़ 


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Friday 13 February 2015

जीवन संध्या


जीवन संध्या






जीवन की संध्या पहर है आई,
जड़ें हो रही हैं निर्बल,
तरु की भार भी नहीं संभलती,
ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                
                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई। 

देख क्षितिज पे लालिमा गहराई,
रवि का तेज़ हो रहा नरम,
पंछी लौट रहे अब घर को ,
छोड़ मोह वन उपवन को। 
                
                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई। 

सहस्त्र सितारों को अब है आना,
चंदा भी बैठा आँचल फ़ैलाने को,
तेरी शाख़ें भी विस्तृत हैं फैली,
कर माया का तू भी परित्याग,
            
                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई। 

जड़ें नूतन कर फैले शाख में,
शीतल चांदनी  मनोरम संग,
चीर निद्रा को कर आलिंगन ,
तत्पर हो जा नए सफर को।  

                 ऐ मन तू अब संधि कर ले। 
                 जीवन की संध्या पहर है आई।

आदित्य सिन्हा, 
13. 02. 2015. 
अलीगढ़। 

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Friday 30 January 2015

दिव्य उलझन - I

दिव्य उलझन  - I


चंचल चिड़ि जब पंख फैलाये,
अलसाये रवि को करे नमन,
मदमस्त हो निर्मल सी चहके,
हर आँगन में छेड़े नूतन तरंग
कुंजन कर कहे जाग सलोनी,
परिचय कराऊँ अभिलाषी प्रभात,
तरु शाख से शिविर क्षितिज तक,
गूंजन करे आलौकिक अविरल।।

सुन सृजन की मृदु गुनगान, 
अध पलक मैं देखती किरण,
अलसाती, अंगड़ाती, आँखों को मलती,
 इठलाती मैं स्वप्निल नयन।    
जागती खोई तब मिथ्य जगत में, 
छवि ख्वाब के मुग्ध आलिंगन में, 
परखती यथार्थ, समझती समझाती,
करती परित्याग की एक कोशिश भ्रमक  


First part of a series of poem depicting the perplex when a girl first falls in love and then realizes and finally accepts - all through her day to day work. This first part is when she wakes up in the morning.   Express how & what you feel.

आदित्य सिन्हा 
30 . 01 . 2015 
अलीगढ़ 

Wednesday 28 January 2015

अकेले होते तन्हा नहीं हम




अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग सहज कर लेते।  

हर कोने में कुछ पन्ने बिखरे,
दीवारों से तसवीरें लुढ़कते, 
गुजले पन्नों के लुप्त लकीरें ,
लटकती तस्वीरों पे धुल की चादरें,
आँखों से बहते दो बूंद सहस,
धूमिल तस्वीरें नव चेतन करते,  
उन पन्नों में उलझे अफसाने,
सुलझाते व्यथाएँ,  बनाते तराने,

अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग सहज कर लेते। 

तन्हा जीवन,  कोरा  दिल ,
फिर दिल पे दस्तक हर पल , 
कभी उड़ती ज़ुल्फें, कभी चन्दन बदन,
काले नैन,  कुछ लरजता यौवन, 
दिल की धड़कन, उठते बैठते,
बंद आँखें और उन्मुक्त मन, 
तारें मिलते फिर करता चयन, 
मिलते सुर बनते सरगम।

अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग सहज कर लेते। 

होता कुंठित जहन, या पीड़ा दफ़न, 
अनजाने सवाल या विचलित मन, 
ख़ुशी के होते झूमते  मौसम,
या गौरव से हर्षित पलछीन, 
अधीर रूह मिलती खुद से,
ढूंढ एकान्त, दूर जगत में ,
आलिंगन करता मन फिर तन से, 
खोज रहस्य तरुणित हो जाता। 
  
अकेले होते तन्हा नहीं हम,
तन्हाई में खुद से जब मिलते,
उठते गिरते इस जीवन के, 
पथ हम संग कर लेते। 

आदित्य सिन्हा 
28. 01 2015 
अलीगढ़ 

(यह कविता इंडीब्लॉग के उन्चासवें इंडिस्पायर विषय #solitude से प्रेरित है ) 


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मैं और मेरी तन्हाई

मैं और मेरी तन्हाई 



मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ.

रात होती गर लम्बी शीत की,
गर्म रखते ख्वाब मीत से ,
उबलते उजले गृष्म में भी , 
ठंडक देते भुनते मन को।  

मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ। 

दर्द हो गर गहरे चोट से,
वक्त के ये लेप लगाते,
आनंदित प्रफुल्लित मन कर,
बार बार जीवंत कर जाते। 

मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ।

टूट के गर बिखरे तिल-तिल,
दिल को दिल की बात बताते, 
नव मन तरूण तन कर,
उठ कर नई राह चलाते। 

मैं और मेरी तन्हाई,
दोनोँ का है गहरा साथ,
ख़ुशी में हैं दामन फैलाते,
गम में भी थामते हाथ।
  

आदित्य सिन्हा 
28 . 01 . 2015 
अलीगढ़ 

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Friday 16 January 2015

जीना सीख लिया

जीना सीख लिया



जरा सी आहट जो होती फ़िज़ां में,

मायूस चेहरे पे हम नकाब चढ़ा लेते,  
होठों पे थिरका एक खोखली मुस्कान, 
उठा सर दो कदम हम और चल लेते, 
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

वो जो चेहरा था फूलों सा कभी हमारा,
अब छुपा कर पलकों में बसा हम रखते,
आँसू भी गर निकले कभी महफ़िल में,  
खुशबू -ए-अर्क में भी वो ज़ाहिर नहीं होते, 
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

नर्म होठों से जिनके चलती थी सांसें,  

सदा वो अब रखते जलते लबों को,
लहू भी जो उभरे कभी दरारों पे,
जुबां को फेर हम लाली बना लेते ,
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

कोरे दिल पे कभी लिखी कहानी जिनकी, 
हर रात देती हैं साथ अब वो ख्वाब बन के,
नींदों में भी कभी नाम न आये उनकी, 
हर सुबह खुदा से हम यही अर्ज़ हैं करते, 
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।

एक नाम जो जुड़ा उनसे अनजाने में,

मिली आयाम,  खुद को भूल गया मैं , 
उनके जाने के बाद भी न कह सकूँ बेवफा मैं ,
इसलिए हूँ ज़िंदा और जीना सीख लिया मैं ,
उनके जाने ने हमें जीना जो सीखाया,
ग़मों को घोल हम हर ज़हर हैं पी लेते।


आदित्य सिन्हा 
16 . 01. 2015 
अलीगढ़